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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


शिकार मुंशी प्रेम चंद


'ज्यों ही भैसे पर आया, मैं उसका काम तमाम कर दूँगा। तुम्हारी गोली की नौबत ही न आने पावेगी।'
वसुधा ने सिहरकर कहा, और जो कहीं निशाना चूक गया तो उछलेगा ?
'तो फिर दूसरी गोली चलेगी। तीनों बन्दूकें तो भरी तैयार रखी हैं।
तुम्हारा जी घबड़ाता तो नहीं ?'
'बिलकुल नहीं। मैं तो चाहती हूँ, पहला मेरा निशाना होता।'
पत्ते खड़खड़ा उठे। वसुधा चौंककर पति के कन्धों से लिपट गयी। कुँवर साहब ने उसकी गर्दन में हाथ डालकर कहा, दिल मजबूत करो प्रिये।
वसुधा ने लज्जित होकर कहा, नहीं-नहीं, मैं डरती नहीं, जरा चौंक पड़ी थी।" सहसा भैंसे के पास दो चिनगारियाँ-सी चमक उठी। कुँवर साहब ने
धीरे से वसुधा का हाथ दबाकर शेर के आने की सूचना दी और सतर्क हो गये। जब शेर भैंसे पर आ गया, तो उन्होंने निशाना मारा। खाली गया। दूसरा फैर किया। चीता जख्मी तो हुआ; पर गिरा नहीं। क्रोध से पागल होकर इतनी जोर से गरजा कि वसुधा का कलेजा दहल उठा। कुँवर साहब तीसरा फैर करने जा रहे थे कि चीते ने मचान पर जस्त मारी। उसके अगले पंजों के धक्के से मचान ऐसा हिला कि कुँवर साहब हाथ में बन्दूक लिये झोंके से नीचे गिर पड़े। कितना भीषण अवसर था ! अगर एक पल का भी विलम्ब होता, तो कुँवर साहब की खैरियत न थी। शेर की जलती हुई आँखें वसुधा के सामने चमक रही थीं। उसकी दुर्गन्धमय साँस देह में लग रही थी। हाथ-पाँव फूले हुए थे। आँखें भीतर को सिकुड़ी जा रही थीं; पर इस खतरे ने जैसे उसकी नाड़ियों में बिजली भर दी। उसने अपनी बन्दूक सॅभाली। शेर के और उसके बीच में दो हाथ से ज्यादा अन्तर न था। वह उचककर आना ही चाहता था कि वसुधा ने बन्दूक की नली उसकी आँखो में डालकर बन्दूक छोड़ी। धायें ! शेर के पंजे ढीले पड़े। नीचे गिर पड़ा। अब समस्या भीषण थी। शेर से तीन-चार कदम पर ही कुँवर साहब गिरे पड़े थे। शायद चोट ज्यादा आयी हो। शेर में अगर अभी दम है, तो वह उन पर जरूर वार करेगा। वसुधा के प्राण आँखो में थे और बल कलाइयों में। इस वक्त कोई उसकी देह में भाला भी चुभा देता, तो उसे खबर न होती ! वह अपने होश में न थी। उसकी मूर्च्छा ही चेतना का काम कर रही थी। उसने बिजली की बत्ती जलाई। देखा शेर उठने की चेष्टा कर रहा है। दूसरी गोली सिर पर मारी और उसके साथ ही रिवाल्वर लिये नीचे कूदी। शेर जोर से गुर्राया। वसुधा ने उसके मुँह के सामने रिवाल्वर खाली कर दिया। कुँवर साहब सॅभलकर खड़े हो गये। दौड़कर उसे छाती से चिपटा लिया। अरे ! यह क्या। वसुधा बेहोश थी। भय उसके प्राणों को मुट्ठी में लिये उसकी आत्म-रक्षा कर रहा था। भय के शांत होते ही मूर्च्छा आ गयी। तीन घंटों के बाद वसुधा की मूर्च्छा टूटी। उसकी चेतना अब भी उन्हीं भयप्रद
परिस्थितियों में विचर रही थी। उसने धीरे से डरते-डरते आँखें खोलीं। कुँवर साहब ने पूछा," क़ैसा जी है प्रिये ?" वसुधा ने उनकी रक्षा के लिए दोनों हाथों का घेरा बनाते हुए कहा, "वहाँ से हट जाओ ! ऐसा न हो, झपट पड़े।"
कुँवर साहब ने हँसकर कहा, "शेर कब का ठंडा हो गया। वह बरामदे में पड़ा है। ऐसे डील-डौल का और इतना भयंकर सिंह मैंने नहीं देखा। वसुधा --तुम्हें चोट तो नहीं आयी ?"
कुँवर -- बिलकुल नहीं। तुम कूद क्यों पड़ीं ? पैरों में बड़ी चोट आयी होगी। तुम जीती कैसे बचीं, यह आश्चर्य है। मैं तो इतनी ऊँचाई से कभी न कूद सकता।
वसुधा ने चकित होकर कहा, मैं ! मैं कहाँ कूदी ? शेर मचान पर आया, इतना याद है। उसके बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं।
कुँवर को भी विस्मय हुआ, वाह ! तुमने उस पर दो गोलियाँ चलाईं। जब वह नीचे गिरा, तो तुम भी कूद पड़ीं और उसके मुँह में रिवाल्वर की नली ठूंस दी। बस वहीं ठंडा हो गया। बड़ा बेहया जानवर था। अगर तुम चूक जातीं, तो वह नीचे आते ही मुझ पर जरूर चोट करता। मेरे पास तो
छुरी भी न थी। बन्दूक हाथ से छूटकर दूसरी तरफ गिर गयी थी। अँधेरे में कुछ सुझाई न देता था। तुम्हारे ही प्रभाव से इस वक्त मैं यहाँ खड़ा हूँ,
तुमने मुझे प्राण-दान दिया। दूसरे दिन प्रात:काल यहाँ से कूच हुआ। जो घर वसुधा को फाड़े खाता था, उसमें आज जाकर ऐसा आनन्द आया,
जैसे किसी बिछुड़े मित्र से मिली हो। हरेक वस्तु उसका स्वागत करती हुई मालूम होती थी ! जिन नौकरों और लौंडियों से वह महीनों से सीधे मुँह न बोली, थी, उनसे वह आज हँस-हँसकर कुशल पूछती और गले मिलती थी, जैसे अपनी पिछली रुखाइयों की पटौती कर रही हो।
संध्या का सूर्य, आकाश के स्वर्ण सागर में अपनी नौका खेता हुआ चला जा रहा था ! वसुधा खिड़की के सामने कुरसी पर बैठकर सामने का दृश्य देखने लगी। उस दृश्य में आज जीवन था, विकास था, उन्माद था। केवट का वह सूना झोपड़ा भी आज कितना सुहावना लग रहा था। प्रकृति में मोहिनी भरी हुई थी। मन्दिर के सामने मुनिया राजकुमारों को खिला रही थी। वसुधा के मन में आज कुलदेव के प्रति श्रद्धा जागृत हुई, जो बरसों से पड़ी सो रही थी। उसने पूजा के सामान मँगवाये और पूजा करने चली। आनन्द से भरे भण्डार से अब वह कुछ दान भी कर सकती थी। जलते हुए ह्रदय से ज्वाला के सिवा और क्या निकलती। उसी वक्त कुँवर साहब आकर बोले "अच्छा, पूजा करने जा रही हो। मैं भी वहीं जा रहा था। मैंने एक मनौती मान रक्खी है।"
वसुधा ने मुस्कराती हुई आँखो से पूछा, क़ैसी मनौती है ?
कुँवर साहब ने हँसकर कहा, "यह न बताऊँगा।"

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